ओ3म्
संत कबीर के दोहे भाग —1
दया, गरीबी, बन्दगी, समता, शील, विचारहैं लक्षण ये संत के, कहहिं कबीर पुकार
दुख में सुमिरन सब करें, सुख में करे न कोय
जो सुख में सुमिरन करें, दुख काहे को होय
साईं इतनी दीजिए, जा में कुटुंब समाए
मैं भी भूखा न रहूं, साधू न भूखा जाए
बुरा जो देखन मैं चला, बुरा न मिलया कोय
जो मन खोजा आपना, मुझसे बुरा न कोय
बड़ा हुआ तो क्या हुआ, जैसे पेड़ खजूर
पंथी को छाया नहीं, फल लागे अति दूर
काल करे सो आज कर, आज करे सो अब
पल में परलय होएगी, बहुरी करोगे कब
ऐसी बानी बोलिए, मन का आपा खोए
औरन को शीतल करे, आपुहि शीतल होय ।।
धीरे-धीरे रे मन, धीरे सब-कुछ होए
माली सींचे सौ घड़ा, ऋतु आए फल होए
जैसे तिल में तेल है, ज्यों चकमक में आग
तेरा साईं तुझ में है, जाग सके तो जाग
पोथि पढ़-पढ़ जग मुआ, पंडित भया न कोए
ढाई आखर प्रेम का, पढ़ा सो पंडित होए
माया मरी न मन मरा, मरि-मरि गया शरीर
आशा, तृष्णा ना मरी, कह गए दास कबीर
माला फेरत जुग भया, फिरा न मन का फेर ।
कर का मन का डार दें, मन का मनका फेर ॥
जहाँ दया तहाँ धर्म है, जहाँ लोभ तहाँ पाप ।
जहाँ क्रोध तहाँ पाप है, जहाँ क्षमा तहाँ आप ॥
कबीरा ते नर अन्ध है, गुरु को कहते और ।
हरि रूठे गुरु ठौर है, गुरु रुठै नहीं ठौर ॥
रात गंवाई सोय के, दिवस गंवाया खाय ।
हीरा जन्म अनमोल था, कौड़ी बदले जाय ॥
आये हैं सो जाएँगे, राजा रंक फकीर ।
एक सिंहासन चढ़ि चले, एक बँधे जंजीर ॥
- कबीर
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